घर बदलने का दर्द
घर, सिर्फ चार दीवारों और एक छत का नाम नहीं है। यह भावनाओं, यादों और रिश्तों का बसेरा होता है। जब कोई इंसान घर बदलता है, तो वह सिर्फ एक जगह नहीं छोड़ता, बल्कि अपने जीवन का एक हिस्सा पीछे छोड़ जाता है।
वो गलियाँ, वो नुक्कड़
वो गलियाँ जिनमें बचपन बीता, वो नुक्कड़ जहाँ दोस्तों के साथ घंटों बिताए, वो पेड़ जिसके नीचे बैठकर सपने बुने, सब कुछ पीछे छूट जाता है। हर ईंट, हर पत्थर, हर कोने में बसी होती हैं यादें, जो दिल को कचोटती हैं।
वो रिश्ते, वो लोग
पड़ोसियों के साथ हँसी-मज़ाक, दोस्तों के साथ देर रात तक बातें, परिवार के साथ बिताए गए अनमोल पल, सब कुछ धुंधला होने लगता है। दूरियाँ रिश्तों में भी दरार डाल देती हैं।
वो सुकून, वो अपनापन
अपने घर की वो खुशबू, वो सुकून, वो अपनापन, कहीं और नहीं मिलता। हर चीज़ जानी-पहचानी, हर कोना अपना, एक अजीब सी सुरक्षा का एहसास होता है। नया घर कभी भी उस पुराने घर की जगह नहीं ले सकता।
आँखों में नमी, दिल में दर्द
घर छोड़ते वक़्त आँखों में नमी और दिल में दर्द होता है। ऐसा लगता है जैसे कोई अपना बिछड़ रहा हो। यादों का बोझ इतना भारी होता है कि कदम लड़खड़ाने लगते हैं।
वक्त के साथ भरते हैं घाव
वक्त के साथ घाव भरते हैं, लेकिन निशान हमेशा रहते हैं। नया घर भी धीरे-धीरे अपना लगने लगता है, लेकिन पुराने घर की यादें कभी नहीं मिटतीं।
घर, एक अहसास
घर सिर्फ एक जगह नहीं, एक अहसास है। एक ऐसा अहसास जो हमेशा दिल में बसा रहता है।
अपनी जिंदगी मै लोग आए ना तो परख लेना बरना बनाई हुए जिंदगी 1 वर्ष मै तबाह कर दे । दुनिया बकाई बहुत लोगों का झुंड है लेकिन मेरा अनुभव कहता है ।
झुंड मै सब भेड़िया है बस दर्द होगा तकलीफ होगी ।।
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