"क्या आप उस संस्करण पर भरोसा कर सकते हैं जो आपके ‘स्वयं को चुनने’ के बाद उभरता है — भले ही उसे बनने के लिए गिरना पड़े?"
प्रस्तावना:
यह सवाल केवल एक वाक्य नहीं है, यह एक सम्पूर्ण यात्रा है — आत्मा की, सोच की, और उस पहचान की जिसे हम "मैं कौन हूँ?" कहकर परिभाषित करने की कोशिश करते हैं। जीवन में जब इंसान खुद को चुनता है, तो वह पूरी दुनिया से टकराता है। यह टकराव बाहर से नहीं, अंदर से होता है — अपनी आदतों से, अपने डर से, अपने पुराने संस्करण से। और जब यह टकराव होता है, तो कई बार व्यक्ति टूटता है, गिरता है। सवाल ये नहीं है कि गिरोगे या नहीं, सवाल यह है कि क्या तुम खुद के नए अवतार पर भरोसा कर सकते हो?
स्वयं को चुनना क्या है?
स्वयं को चुनना का मतलब होता है — भीड़ से अलग चलना, "लोग क्या कहेंगे" के खिलाफ खड़े होना, और अपने अंदर की आवाज़ को प्राथमिकता देना। ये आसान नहीं होता। क्योंकि इंसान को आदत होती है स्वीकार किए जाने की, प्यार की, मान्यता की। पर जब आप खुद को चुनते हो, तो हो सकता है कि आपको अपनों से ही अलग होना पड़े, रिश्तों को तोड़ना पड़े, पुरानी पहचान को जलाना पड़े।
पर एक बात तय है — Transformation sacrifice मांगता है।
गिरावट की कीमत क्या होती है?
जब आप अपने पुराने "मैं" को पीछे छोड़ते हो, तो एक रिक्तता पैदा होती है। वो खालीपन डराता है, क्योंकि पुराना जाना पहचाना होता है — चाहे वह दुखद ही क्यों न हो। उस गिरावट में आपकी ego मरती है, आपकी छवि टूटती है, आपका आराम ज़ोन तबाह हो जाता है।
लोग पूछते हैं: "तू बदल गया है!"
और जवाब देना मुश्किल हो जाता है, क्योंकि बदलाव का जवाब शब्दों में नहीं, कर्मों में होता है — जो अभी बीज रूप में होते हैं, परिणाम नहीं बने होते।
क्या भरोसा करना संभव है?
हाँ, और केवल यही एक रास्ता है।
जैसे बीज अंधेरे में गड्ढे में बोया जाता है, वैसे ही खुद को चुनना भी एक डार्क फेज़ से गुजरता है। लेकिन क्या तुम बीज पर भरोसा नहीं करोगे सिर्फ इसलिए कि वह अभी मिट्टी में है?
खुद को चुनने के बाद जो संस्करण उभरता है, वह जख्मी होता है, पर झुका नहीं होता।
वह अकेला होता है, पर आज़ाद होता है।
वह डरा होता है, पर आगे बढ़ रहा होता है।
वह गिरा होता है, पर गिरकर उठना सीख चुका होता है।
यह वह इंसान होता है, जो अपने डर को पहचानता है, पर उसे नियंत्रित भी करता है। वह जानता है कि यह रास्ता कठिन है, पर उसे यह भी पता है कि सच्ची आज़ादी इसी में है।
क्यों जरूरी है गिरना?
क्योंकि growth कभी भी सहजता से नहीं आती। हर महान इंसान को टूटना पड़ा है। राम exile में गए, कृष्ण को खुद अपनों से लड़ना पड़ा, बुद्ध ने राजपाट छोड़ दिया। सबने पहले खुद को चुना, फिर गिरावट को स्वीकार किया, और अंत में वो बने, जिन्हें हम पूजते हैं।
गिरना आपकी शक्ति को परिभाषित नहीं करता, बल्कि ये तय करता है कि आप उस शक्ति को कैसे दोबारा जगा पाते हो।
भविष्य का संस्करण और वर्तमान की आग:
आज जो आप हैं, वह कल के “आप” का बीज है। लेकिन उस बीज को अंकुर बनना है, तो उसे तपना पड़ेगा, सड़ना पड़ेगा, गलना पड़ेगा। यही गिरावट है। लेकिन जो “आप” उस गिरावट के बाद उठते हैं — वह नया है, शुद्ध है, सत्य है।
तो भरोसा करें या नहीं?
बिलकुल करें। पूरे विश्वास से करें।
क्योंकि जो स्वयं को चुनता है, वह खुदा से नहीं डरता। वह असफलता से नहीं घबराता। वह जानता है कि वह चाहे लाख बार टूटे, पर हर बार वह कुछ नया बनकर उभरेगा — और वह "नया" हमेशा पहले से बेहतर होगा।
सच यह है कि:
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गिरना कमजोरी नहीं, प्रक्रिया है।
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उठना हिम्मत नहीं, जिम्मेदारी है।
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खुद को चुनना जुनून नहीं, जागरूकता है।
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और खुद पर विश्वास रखना केवल भरोसा नहीं, ये भविष्य का निर्माण है।
अंतिम संदेश:
अगर तुम खुद को चुनने के बाद गिर भी गए, तो डर मत। वो गिरावट तुझे उस ऊँचाई पर ले जाएगी, जहाँ तू अपने जीवन का वास्तविक "शेर" संस्करण पाएगा। उस दर्द में जो चमक है, वह किसी भी बाहरी प्रशंसा से कई गुना ज़्यादा मूल्यवान है।
याद रखो, जो खुद को चुनता है, वही असली राजा होता है — बाकी सब तो बस भीड़ है।
Shivani - Numerology Assistant
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