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"परिवार न्यायालय: इंसाफ की जगह इमोशनल अत्याचार का मैदान बन गया है"


परिवार न्यायालय: इंसाफ की जगह इमोशनल अत्याचार का मैदान बन गया है




जब भी कोई "परिवार न्यायालय" शब्द सुनता है, तो उसके दिमाग में एक उम्मीद की किरण जगती है – शायद अब इंसाफ मिलेगा, टूटते रिश्ते सुधरेंगे, बच्चों का भविष्य बचेगा। लेकिन आजकल हकीकत कुछ और ही है। ये जगह अब कागज़ी लड़ाइयों, झूठे इल्ज़ाम और मानसिक त्रास का अखाड़ा बन चुकी है।

1. परिवार की लड़ाई – कोर्ट में पहुंचते ही समाज की तमाशा बन जाती है

पति-पत्नी की लड़ाई, बच्चों की कस्टडी, गुज़ारा भत्ता, तलाक – ये सब निजी चीजें हैं, जो कोर्ट में आते ही सबके सामने एक्सपोज़ हो जाती हैं। इंसान की इज्जत मिट्टी में मिल जाती है, और समाज उस पर उंगली उठाने लगता है।

2. कोर्ट में सालों तक लटकते केस – ना इंसाफ मिलता है, ना सुकून

एक बार केस दर्ज हो गया, तो सालों तक तारीखें मिलती हैं। हर तारीख पर उम्मीद लेकर जाता है आदमी, पर मिलता है सिर्फ नया खर्च, नया टेंशन। इस दौरान मानसिक तनाव, डिप्रेशन, अकेलापन – ये सब ज़िंदगी का हिस्सा बन जाते हैं।

3. झूठे केस – सच्चे लोगों की जिंदगी से खिलवाड़

आजकल महिला सुरक्षा के नाम पर कई झूठे केस हो रहे हैं – जैसे 498A, घरेलू हिंसा, दहेज उत्पीड़न। इसका सीधा असर उन मर्दों और उनके परिवार पर पड़ता है जो पूरी ईमानदारी से रिश्ता निभा रहे थे। एक झूठा केस, और पूरा खानदान कोर्ट-कचहरी के चक्कर में पड़ जाता है

4. बच्चों की कस्टडी – मासूमों की सबसे बड़ी सज़ा

पति-पत्नी की लड़ाई में सबसे ज़्यादा नुकसान बच्चों का होता है। उन्हें या तो माँ से दूर किया जाता है या पिता से। बच्चा कोर्ट की कागज़ी भाषा नहीं समझता – उसे सिर्फ प्यार चाहिए। लेकिन कोर्ट की प्रक्रिया में वो भी 'साक्ष्य' बन जाता है।

5. वकील और तारीखें – इंसाफ की बजाय धंधा बन चुका है

सच कहें तो बहुत से वकील इस प्रक्रिया को खींचते हैं – क्योंकि हर तारीख पर फीस मिलती है। इंसाफ से ज़्यादा कमाई का खेल बन चुका है ये। आदमी की जेब खाली हो जाती है और नतीजा फिर भी अधूरा ही रहता है।

6. समाज का रवैया – कोर्ट गए? मतलब जरूर कुछ गलत किया होगा

कोर्ट में जाना अपने आप में बदनामी जैसा हो गया है। लोग सवाल उठाने लगते हैं – “क्या किया होगा जो वहां तक बात पहुंची?” कोई ये नहीं सोचता कि शायद सच में मजबूरी रही हो। पीड़ित को ही दोषी समझ लिया जाता है।

7. मानसिक ट्रॉमा – ना कोई सुनता है, ना कोई समझता है

Family Court का हर केस इंसान को अंदर से तोड़ देता है। डिप्रेशन, अकेलापन, आत्महत्या तक के हालात पैदा हो जाते हैं। खासकर पुरुषों के लिए तो कोई सपोर्ट सिस्टम भी नहीं होता।

8. कोर्ट में ना जाना ही आजकल समझदारी बन गई है

कई समझदार लोग अब कोर्ट से दूर रहते हैं। रिश्ते में मनमुटाव हो तो बातचीत से हल निकालते हैं। कोर्ट में जाना मतलब ज़िंदगी को सालों पीछे ले जाना। अगर बच्चे हैं तो उनके भविष्य से भी खिलवाड़।

9. क्या है समाधान?

  • मीडिएशन (सुलह) का रास्ता अपनाना चाहिए – कोर्ट से बाहर बात हो तो सुलझ सकती है।
  • महिलाओं के अधिकार के साथ-साथ पुरुषों की सुरक्षा के कानून भी बनें – ताकि झूठा केस दर्ज करने से पहले कोई सोचे।
  • फैमिली कोर्ट में काउंसलर हों, सिर्फ वकील नहीं – ताकि रिश्तों को जोड़ने की कोशिश हो।

Shivam90 की कलम से: "इंसाफ के नाम पर इंसान को तोड़ देना, किसी भी देश की हार है। कोर्ट में सिर्फ सच्चाई दिखनी चाहिए, बदला नहीं।"


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Shivam Soni
Shivam Soni
Founder, Shivam90.in | Desi Digital Journalist

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