कश्मीर में आतंकी हमला और दोहरी मानसिकता
पिछले दिनों कश्मीर में फिर वो हुआ जिसकी हमें उम्मीद नहीं थी: एक बार फिर घाटी में बहादुर नागरिकों और मासूम पर्यटकों पर आतंकियों ने जानलेवा वार किया। 22 अप्रैल 2025 को पहलगाम के भेड़शाला इलाके में हमला हुआ, जिसमें सरकारी सूत्रों के अनुसार 26 लोगों की मौत हो गई, जिनमें अधिकांश भारतीय पर्यटक थे। इस हमले ने एक बार फिर याद दिला दिया कि घाटी में आतंकी समूह अब सीधे पर्यटकों को टारगेट कर रहे हैं। जिन्होंने अपनी जान गवाईं उनमें ज्यादातर हिन्दू पुरुष थे और सुरक्षा बलों ने पहले ही बताया है कि हमला करने वालों ने खास तौर पर हिन्दुओं को निशाना बनाया। अचानक देश में संवेदना की लहर दौड़ पड़ी – दिल्ली, गुड़गांव और अन्य शहरों में पीड़ितों के लिए कैंडल मार्च हुए, नेताओं ने हर मंच से इंसानियत की बात कही। पर क्या यही संवेदनशीलता इतनी देर से आई है?
इतिहास की काली रात: 1990 का नरसंहारइतिहास की काली रात: 1990 का नरसंहार
कहना नसीब में ही था कि हम आज वही प्रश्न दोहराएं जो तीस साल पहले दबी जुबां में थे। 1989-90 के दंगों ने घाटी की तस्वीर बदल दी थी। उस दौर की घटनाओं के दस्तावेज बताते हैं कि 19 जनवरी 1990 की रात को बढ़ती हिंसा से तंग होकर करीब 5 लाख कश्मीरी पंडितों को अपने घाटीवाले घर-बार छोड़कर भागना पड़ा। जब तक हम इस दर्दनाक इतिहास पर अभी तक इतनी तरह की “चिंता” नहीं दिखाते थे, तब तक आज की इन घटनाओं पर अचानक गरिमामय शोक जताया जा रहा है। तब अनेकों कत्लेआम हुए – 1998 में वंधामा नरसंहार में आतंकियों ने 23 निर्दोष पंडितों को उनके घरों से खींचकर निर्ममता से मार डाला। संग्रामपोरा, छप्निशपोरा, पौलवामा जैसी दर्दनाक घटनाएँ उस समूचे नरसंहार के सिर्फ कुछ उदाहरण हैं।
वर्षों तक घाटी से विस्थापित रहे पंडितों की पीड़ा भुलाने का प्रयास किया गया, लेकिन उनकी आवाज कभी दबी नहीं। इस इतिहास को याद न करना, आज उठ रही संवेदना से भी बड़ी व्यंग्यात्मक सच्चाई है।
स्थानीय साझीदार: तब के साथ आज के ओजीडब्ल्यूस्थानीय साझीदार: तब के साथ आज के ओजीडब्ल्यू
इस इतिहास की कड़वाहट तब और भी गहरा जाती है जब हम देखते हैं कि आज भी घाटी में आतंकियों को मदद देने वाले स्थानीय सहयोगी सक्रिय हैं। सुरक्षा एजेंसियों की जांच में सामने आया है कि पहलगाम हमले को अंजाम देने वाले कम से कम चार आतंकियों में से दो स्थानीय कश्मीरी थे। पाकिस्तान से भेजे गए इन गुंडों को घाटी के कुछ 'ओवरग्राउंड वर्कर्स' (ओजीडब्ल्यू) ने हर तरह की सहायता दी। आज तक 15 ऐसे स्थानीय आतंक “सहयोगियों” की पहचान की गई है जिन्होंने आतंकियों को जंगलों से रास्ता दिखाया, हथियार मुहैया करवाए और उनके लिए खाना-पीना व आश्रय का इंतज़ाम किया। इनमें से तीन को हिरासत में ले लिया गया है और बाकी की तलाश जारी है।
कश्मीर पुलिस और केंद्र सरकार ने अब तक 200 से अधिक संदिग्ध ओजीडब्ल्यू को पकड़कर पूछताछ की है। इनमें से लगभग 20-25 ऐसे शख्स हैं जो पहले से भी कुख्यात हैं – ये पाकिस्तानी आतंकियों को छिपाते और मार्गदर्शन करते पाए गए हैं। पुलिस के एक अधिकारी के मुताबिक बचाये गए इन 15 मुखर ओजीडब्ल्यू ने पिछले कई वर्षों में दक्षिण कश्मीर में आतंकवादियों की धुरी साबित होने वाली वारदातों में मदद की, हथियार पहुंचाए और उन्हें जंगलों में रास्ता दिखाया। जाहिर है, इन तथ्यों की रोशनी में कहा जा सकता है कि कल जैसी मौतों के पीछे सिर्फ बाहर के दुश्मन का हाथ नहीं है, बल्कि घाटी में दबी कोई सांप-सी सोच भी है।
कैंडल मार्च और चुप्पी: संवेदना की असमानताकैंडल मार्च और चुप्पी: संवेदना की असमानता
कश्मीर में दोनों ओर से उठी इस संवेदनशीलता की सबसे बड़ी विडंबना है इसका इतिहास। जब तक घाटी में संगठित नरसंहार हो रहा था, तब तक इन घटनाओं पर देश के प्रमुख हस्तियां चुप्पी साधे रहीं। आज हर किसी को राष्ट्रीय जिम्मेदारी का अहसास हो गया कि बेगुनाहों की जान जाने पर शोक प्रकट करना चाहिए। लेकिन क्या 1990 के निर्वासन के वक्त भी किसी ने ऐसी याचना सभा की?
एक गुड़गांव की श्रद्धांजलि सभा में इस द्वंद्व को भली-भाँति उठाया गया: कार्यक्रम में काश्यप कश्मीर सभा के डॉ. अनिल वैष्णवी ने कहा कि इस घटना की तुलना जनवरी 1990 के सामूहिक पलायन से की गई है और 1998 के वंधामा नरसंहार का भी जिक्र किया गया। पर मुख्य सवाल तो यही है कि तब अपार त्रासदियों के बीच समाज ने क्यों सन्नाटा भरा? जब कश्मीर का प्रत्येक कोना रक्तरंजित था, उस समय क्या राष्ट्रीय भावनाएँ सोई थीं? इन प्रश्नों की चमचमाती रोशनी में कईयों की दोगली नीति उजागर हो रही है।
पर्यटन पर कहर: घाटी की अर्थव्यवस्थापर्यटन पर कहर: घाटी की अर्थव्यवस्था
पहलगाम हमले ने घाटी की अर्थव्यवस्था को एक बड़ा झटका दिया है। भारतीय नियंत्रित कश्मीर का पर्यटन क्षेत्र इन घटनाओं से बुरी तरह दहला है। एक सरकारी आदेश के तहत घाटी के कुल 87 सरकारी रिसॉर्ट्स में से 48 को अस्थायी रूप से बंद कर दिया गया है। पर्यटक स्थलों पर सुरक्षा कड़ी करने के लिए यह फैसला लिया गया। इसके परिणामस्वरूप होटल मालिक, रेस्टोरेंट संचालक और स्थानीय गाइड भारी संकट में हैं। अल जज़ीरा की रिपोर्ट में बताया गया कि पहलगाम में स्थित रिजॉर्ट गांव के होटल सोमवार को पर्यटकों से भरे थे, लेकिन हमले की सुबह ही उनके दरवाजे बंद हो गए। सुबह ही चौंकाने वाला मंजर था कि पहले पनाहगाहों में भीड़, अगले ही दिन सन्नाटा।
हालांकि घाटी की कुल जीडीपी में पर्यटन का भाग केवल लगभग 1% है, फिर भी इससे जुड़े अनौपचारिक क्षेत्र व्यापक रूप से प्रभावित होंगे। पर्यटकों के आ जाने से स्थानीय रोज़गार बना था – गाइड, वाहन चालक, घर मालिक, दुकानदार इत्यादि की रोजी-रोटी इस पर टिकी हुई थी। इन गतिविधियों में गिरावट से माल एवं सेवा कर (GST) में भी भारी कमी होगी। संक्षेप में, घाटी की आर्थिक रफ्तार मंद पड़ गई है: रिसॉर्ट्स बंद हैं, दुकानें-होस्टल पर ताला पड़ा है, और “चल पड़े सैलानी” के कारण यहां के दर्जनों सपनों को टूटा हुआ सपनों का साल लगने वाला है।
ऑनलाइन माहौल: सोशल मीडिया और भाईचारे का भ्रमऑनलाइन माहौल: सोशल मीडिया और भाईचारे का भ्रम
दुनिया डिजिटल हो गई है, कश्मीर की त्रासदी भी ट्विटर-टिकटॉक तक पहुंची है। खफ़ा करने वाली बात ये है कि सोशल मीडिया पर कुछ ‘बड़ी फ़िक्र’ दिखाने वाले भी प्रकट हुए, जिन्होंने आतंकियों के खिलाफ नहीं, बल्कि उन्हें बचाने वालों के खिलाफ बोलने की कोशिश की। एक तरफ़ ऑनलाइन पोस्ट में दावा किया गया कि पहलगाम हमले के अधिकांश शिकार मुसलमान थे – जिसे तथ्यों ने झूठा साबित कर दिया। वास्तव में, बच निकलने वाले कई पर्यटक बताते हैं कि गोलीबारी में खासतौर पर हिंदू पुरुषों को निशाना बनाया गया था। दूसरी तरफ ऐसी आवाजें भी आईं जो यह कहने लगीं कि आतंकी हमला बदले की आड़ में हुआ, और इसे हिन्दू–मुस्लिम नाराजगी बढ़ाने का साधन नहीं बनने दिया जाना चाहिए। ये ‘भाईचारे के प्रवक्ता’ अपना बहाना पेश करना चाहते हैं, लेकिन हकीकत यही है कि आतंकी आतंकवाद है – इसे साम्प्रदायिक रंग-रूप देकर बचाना उनके वामपंथी या सेक्युलर भाईचारों का नया फैशन बनता जा रहा है। इस तरह के प्रचार ने आतंकियों को अपराधी मानने के बजाय उन्हें शांतिदूत बना दिया, जबकि सचाई यह है कि गिरफ्तार किए गए हमलावर पाकिस्तानी और स्थानीय दोनों निकले।
कानून का शिकंजा: पुलिस और एजेंसियों की कार्रवाईकानून का शिकंजा: पुलिस और एजेंसियों की कार्रवाई
आतंकियों के खिलाफ जवाबी कार्रवाई भी तेजी से हो रही है। पहलगाम हमले के आरोपी आतंकियों के ठिकानों पर छापेमारी हुई और अब तक उनके 10 घर ध्वस्त किए जा चुके हैं। इनमें से कई लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद के सक्रिय सदस्य थे। सुरक्षा बलों का कहना है कि इन कारवां तोड़ने से घाटी में आतंक की रसद टूटेगी। साथ ही, जमीनी कार्रवाई में 200 से अधिक ओजीडब्ल्यू को हिरासत में लेकर गहन पूछताछ की जा रही है। इनमें से करीब 20-25 शख़्स पाकिस्तानी आतंकियों के मार्गदर्शक व आश्रयदाता निकले हैं। जम्मू-कश्मीर पुलिस की छापेमारी टीमों ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA), खुफिया ब्यूरो और अन्य केंद्र सरकार एजेंसियों के साथ मिलकर काम तेज कर दिया है।
उनके बीच आम सहमति है कि आतंकवाद के इस तंत्र को जमीन से मिटाना है। जम्मू-कश्मीर के LG मनोज सिन्हा ने दोहराया कि आतंकवादियों के साथ मिलीभगत करने वाले पीड़ित नहीं, दोषी हैं – “जो आतंकी को आश्रय देगा, उसका घर जमींदोज कर दिया जाएगा”। उन्होंने यह भी कहा कि ये कार्रवाई अत्याचार नहीं, बल्कि निष्पक्ष न्याय है। राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव मिलकर घाटी में आतंकवाद के पनाहगारों को सबक सिखाना चाहते हैं।
न्याय ही शांति की राहन्याय ही शांति की राह
इस पूरे घटनाक्रम ने फिर याद दिलाया है कि घाटी में वास्तविक शांति केवल न्याय से आएगी। इसमें कोई दो राय नहीं कि आजादी का सपना तभी सच होगा जब पूरे इतिहास की जांच होगी और दोषियों को सबक मिलेगा। इसी सत्य की गूँज कश्मीरी पंडित समुदाय आज भी भर-भरकर कर रहा है। हाल में कश्मीर मुद्दे पर चर्चा में पाकिस्तान को घसीटने वालों की कड़ी आलोचना करते हुए एक पंडित संगठन ने कहा, “बढ़ते पर्यटक आगमन को शांति का सबूत कहना है। क्या अतीत की चीखें अब सुनाई नहीं देतीं? न्याय केवल अपराधियों को सज़ा देने में नहीं है, सत्य स्वीकारने में है”।
कश्मीर पंडित संघर्ष समिति के प्रमुख संजय टिक्कू के शब्दों में, “बिना सच्चाई को उजागर किए कोई मेल-मिलाप अधूरा ही रहेगा”। यही सच है: तब तक कश्मीरी पंडितों के साथ हुए अन्याय का टुकड़ा-टुकड़ा हिसाब नहीं होगा, तब तक इस भू-भाग में दीर्घकालीन शांति संभव नहीं है। अतः शोकयात्राएं और कैंडल मार्च केवल भावनाएँ जगाते हैं, पर उनमें दम तब आएगा जब हर निर्दोष की हत्या का हक़ीक़ी हाल सामने आएगा।
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