"भ्रमिक चेष्टा"
इंसान हमेशा भ्रम की ओर ले जाने वाले आकर्षणों और इच्छाओं के पीछे बेकाबू होकर दौड़ता रहता है।जो कभी पूरा होने की संभावना भी नहीं होती है। इच्छाओं की न तो कोई सीमा होती है न ही कोई अंत है ।
लेकिन भ्रमिक चेष्ठा के वशीभूत होकर हम उन सपनों के पीछे भी दौड़ने लगते है जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं है। भ्रमिक चेष्टा हमे उन लालसाओ की ओर आकर्षित करती है जिनका मतलब शून्य होता है। कारण सिर्फ इतना ही है कि इंसान भ्रम मै रह के चेष्टा करता है तो परिणाम शून्य मै बदल जाता है। भ्रम के वशीभूत उन सपनों को देखता है जिनका कोई यथार्थ भावी अस्तित्व नहीं है। भ्रम मै पैदा हुई चेष्टा को आसानी से समझा जा सकता है। जैसे हमें दूर से पृथ्वी और आकाश मिलते नजर आते है लेकिन सच मै इनके छोर तक पहुंच पाना भ्रमक चेष्टा के सामन है।
हमारे ऋषियों का मत है कि ऐसी भ्रमकता के आकर्षण मै बिना किसी अर्थ के दौड़ने से अच्छा है कि निरंतर बढ़ते जाए और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की एकाग्रता बनाए रखें।
यह बात हमेशा याद रखे कि इन्सान हमेशा ही इसी भ्रमिकता देने वाली चेष्टा की ओर आकर्षित होता है और कभी तो सम्मोहित भी हो जाता है।
जिसका शमन और सृजन अबाद गति से सदैव चलता है इसके परिणाम मै कुछ मन की लालसाय छुटती है और नई जुड़ती रहती है। उनके पीछे दौड़ भाग करने से कुछ हासिल नहीं होता।
इस बदहवासी मै अपने अंतरात्मा मै बैठे विवेक की शरण लेकर मन की निरंकुश चंचलता नियंत्रित करने के लिए हमें तत्पर रहना चाहिए यही श्रेष्ठ और अच्छा होता है।
भ्रामक आकर्षण का मूल तो लालसाओ और अपेक्षाओं एवं सांसारिक विकारों के होने के कारण ही उम्र का भीं प्रभाव नहीं पड़ता ।
लोग वृद्धावस्था में भी तरूणाई की कामना करते है ।इसी लिए मन की चंचलता पर विवेक की लगाम लगाए रखना ही भ्रामिक लालसाओ से बचे रहने का सबसे अच्छा सुंदर और सुलभ मार्ग है ।
.....................शिवम सोनी
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